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स्तु॒त इन्द्रो॑ म॒घवा॒ यद्ध॑ वृ॒त्रा भूरी॒ण्येको॑ अप्र॒तीनि॑ हन्ति। अ॒स्य प्रि॒यो ज॑रि॒ता यस्य॒ शर्म॒न्नकि॑र्दे॒वा वा॒रय॑न्ते॒ न मर्ताः॑ ॥१९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stuta indro maghavā yad dha vṛtrā bhūrīṇy eko apratīni hanti | asya priyo jaritā yasya śarman nakir devā vārayante na martāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्तु॒तः। इन्द्रः॑। म॒घऽवा॑। यत्। ह॒। वृ॒त्रा। भूरी॑णि। एकः॑। अ॒प्र॒तीनि॑। ह॒न्ति॒। अ॒स्य। प्रि॒यः। ज॒रि॒ता। यस्य॑। शर्म॑न्। नकिः॑। दे॒वाः। वा॒रय॑न्ते। न। मर्ताः॑ ॥१९॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:17» मन्त्र:19 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे जनों को राजा राज्यकर्म्मों में रक्खे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यस्य) जिसके (शर्मन्) गृह में (प्रियः) मनोहर (जरिता) स्तुति करनेवाला (स्तुतः) प्रशंसित (मघवा) बहुत ऐश्वर्य्य से युक्त (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश प्रतापी राजा जैसे सूर्य्य (अप्रतीनि) नहीं प्रतीत (भूरीणि) बहुत (वृत्रा) मेघों के अवयवों को (एकः) सहायरहित अर्थात् अकेला भी (हन्ति) नाश करता है, वैसे ही (यत्) जो असहाय (अस्य) इसकी सेना में (ह) निश्चय से विद्वान् बहुतों का नाश करनेवाला वर्त्ताव करे उसको (देवाः) विद्वान् लोग (नकिः) नहीं (वारयन्ते) रोकते हैं और (न) न (मर्त्ताः) अविद्वान् लोग ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सत्य के उपदेशक अपने प्रियकारक विद्वानों की राजकृत्य में रक्षा करे, उसका पराजय करने को कोई भी नहीं समर्थ होवे ॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशाञ्जनान् राजा राज्यकर्म्मसु रक्षेदित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यस्य शर्मन् प्रियो जरिता स्तुतो मघवेन्द्रो यथा सूर्य्योऽप्रतीनि भूरीणि वृत्रैकोऽपि हन्ति तथैव यद्योऽसहायोऽस्य सेनाया ह विद्वान् बहूनां हन्ता वर्त्तेत तं देवा नकिर्वारयन्ते न मर्त्ताश्च ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (मघवा) बह्वैश्वर्ययुक्तः (यत्) यः (ह) किल (वृत्रा) वृत्राणि मेघावयवान् (भूरीणि) बहूनि (एकः) असहायः सन् (अप्रतीनि) अप्रीतानि (हन्ति) (अस्य) (प्रियः) कमनीयः (जरिता) स्तोता (यस्य) (शर्मन्) गृहे (नकिः) निषेधे (देवाः) विद्वांसः (वारयन्ते) निषेधयन्ति (न) (मर्त्ताः) अविद्वांसो मनुष्याः ॥१९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सत्योपदेशकान्त्स्वप्रियकारकान् विदुषो राज्यकृत्ये रक्षेत् तस्य पराजयं कर्त्तुं कोऽपि न समर्थो भवेत् ॥१९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा सत्याचे उपदेशक स्वतःला प्रिय असणाऱ्या विद्वानांचे राज्यात रक्षण करतो त्याचा पराजय करण्यास कोणी समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १९ ॥